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‘मैं ज़िंदा हूं यह मुश्तहर कीजिये…’ (साहिर-4)

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मैं ज़िंदा हूं यह मुश्तहर कीजिये…

राजकुमार केसवानी

आज फिर मौका है कि अपने एक राज़ को आपके साथ बांटकर बात शुरू करूं. वो राज़ यह है कि दिल इस ख़याल भर से उदास है कि आज आख़िरी बार साहिर की बात करनी है. यह जानते हुए भी कि इस आख़िरी का मतलब शायद बिल्कुल आख़िरी नहीं है फिर भी दिल तो दिल है. बकौल ग़ालिब ‘ दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यों / रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमे सताए क्यों’.

पिछले दो दिन से लगातार 78 आर.पी.एम. का एक रिकार्ड सुने जा रहा हूं. साहिर की आवाज़ में साहिर की शायरी. एक तरफ ‘कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है’ और दूसरी तरफ ‘मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझको’. एच.एम.वी. ने जिस ज़माने में इसे रिलीज़ किया था उस वक़्त इसकी कीमत चंद रुपए थी, आज यह बेशकीमती है.

आप कभी आज़मा कर देखें, अपने किसी अज़ीज़ की आवाज़ को उसकी ग़ैर-मौजूदगी में किसी टेप, किसी सी.डी. पर सुन लें. आपको लगेगा, वो अपना यहीं मौजूद है. आप उससे बात करने लगेंगे. बात हो भी जाएगी. ये मेरा आज़माया हुआ नुस्ख़ा है. अब जैसे दो दिन से मैं इसी फार्मूले से साहिर साहब से बात कर रहा हूं. आप सब की तरफ से बात कर रहा हूं, सो उसे सुनाना भी तो आप ही को है.

‘साहिर साहब, मैं आपसे नाराज़ हूं. आपके नाम का मतलब अगर जादूगर हुआ तो क्या आप जब चाहे आवाज़ बन जाएंगे ? जब चाहे सिर्फ एक ख़ामोश तस्वीर हो जाएंगे ? जब जी चाहेगा, मर जाएंगे ?’

‘मैं ज़िन्दा हूं यह मुश्तहर कीजिए / मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए’.

ये क्या ? मैने सवाल आवाज़ से किया था और जवाब किताब से आया ! इस दुनिया का यही कमाल है. सवाल कभी अकेले पैदा नहीं होते, जवाब भी उनके साथ ही पैदा होते हैं. इतना ज़रूर होता है कि पैदा होती ही दोनो को कोई अलग-अलग जगह छुपा देता है. इन दोनो के बीच फासला सिर्फ सच का होता है. सवाल करने वाले की आवाज़ में ज़रा सच्चाई हुई तो जवाब इस कायनात के किसी भी ज़र्रे से आवाज़ बनकर सामने आ जाता है. मगर होता अक्सर ऐसा है कि हम जवाब की उम्मीद में अपने कान उसी दिशा में लगा लेते हैं जिधर मुंह करके सवाल किया होता है. नतीजा – जवाब, कई बार, अपनी पूरी आवाज़ के साथ भी एक सवाल भर रह जाता है.

ख़ैर! मेरे सवाल का जवाब तो मुझे मिल गया है. साहिर ज़िन्दा हैं. साहिर के ‘क़ातिलों’ को ख़बर रहे. सच कहूं तो पिछले चार हफ्ते में आप सबने भी जितनी ज़ोर से अपनी आवाज़ बुलन्द करके मुझे यह ख़बर दी है उसके बाद मैं बेहद मुतमईन हूं कि ज़िन्दगी ने भले साहिर से धोखा किया हो लेकिन वक़्त आज भी उसी के साथ है.

सच मानिए ज़िन्दगी ने साहिर के साथ बड़ा ज़लील धोखा किया. वो तो जीना चाहता था. पंजाबी के अज़ीम शायर शिवकुमार बटालवी की भरी जवानी में मौत की ख़बर सुनकर साहिर ने कहा था ‘ …वो शिव, फूल बन गया होगा या तारा. हम जो मरेंगे तो करेले का फूल ही बनेंगे. क्योंकि जवानी में तो हम मरने वाले नहीं’.

अब कोई बताए कि आख़िर साहिर से अज़ीमो-शान शायर के लिए महज़ 59 साल की उम्र, जवानी में मौत नहीं तो क्या है ?

लेकिन इतना तय है कि साहिर जब तक जिए , ख़ूब जिए. जितना ख़ुद के लिए जिए, उससे कहीं ज़्यादा समाज के लिए जिए. अपने लिए बस शामें सजाईं. ज़माने को अपनी शायरे दी. ऐसी शायरी जो नौजवानी के अरमानों की बात करती है. ऐसी शायरी जो ज़माने की ख़ुशियों से महरूम लोगों के हक़ की बात करती है. शायरी जो औरत को ख़ुदा का दर्जा देती है.

ज़रा ग़ौर फरमाएं, साहिर जब अपनी बात करते हैं तो कहते हैं ‘मैं पल दो पल का शायर हूं’ अपने दुनियावी व्यवहार में भले ही अखड़पन और अहंकार दिखाते हों लेकिन जब शायर बनकर अपनी बात करते तो कहते ‘मैं पल दो पल का शायर हूं, पल दो मेरी हस्ती है, पल दो पल मेरी कहानी है’ यहां ख़ुदनुमाई से इतनी दूरी कि उनकी ग़ज़लों के मक़्ते में आपको शायद ही कभी उनका तखल्लुस ‘साहिर’ मिले.

दिमाग़ में चाहे जितनी दौलत की गर्मी रहे लेकिन दिल इंसानी अहसास से इस क़दर लबरेज़ कि छलक-छलक पड़ता था. इसकी एक मिसाल निदा फाज़ली के एक किस्से से बख़ूबी समझ आती है. यह उस दौर की बात है जब निदा बम्बई में स्ट्र्गल कर रहे थे.

‘…अक्सर मेरी रातें जांनिसार अख़्तर के घर या साहिर लुधियानवी की ‘परछाइयां’ में बीततीं. साहिर साहब शाही मिजाज़ के आदमी थे. उनकी यह शहंशाहियत उन्हें विरासत में मिली थी… (वहां) बड़िया खानो व महंगी शराबों का लुत्फ उठाता था. …एक रात शायद मुझे नशा ज़्यादा हो गया था, और उस नशे में मैं प्रेक्टीकल होने के बजाय किताबी ज़्यादा हो गया था’.

निदा साहब ने नशे की उसी झोंक में साहिर के सामने ही साहिर की शायरी के मुकाबले फिराक़ गोरखपुरी और फैज़ अहमद ‘फैज़’ की तारीफ कर दी. नाराज़ होकर साहिर ने निदा को दस-बीस सुनाई और बाहर निकल जाने का हुक्म दे दिया. इस बीच साहिर की मां भी बाहर निकल आईं थी. अब मैं फिर से निदा को ही कोट कर रहा हूं, बस ज़रा ग़ौर से सब कुछ देखिएगा और तय कीजिएगा.

“मां जी, देखा. मैने इसकी हालत पर तरस खाया और नतीजे में यह पाया. मेरे सामने ही मेरी बुराई कर रहा है’ दूसरों की तारीफ को वह अपनी बुराई मानते थे.

मैं मेज़ से उठकर दरवाज़े की तरफ बढ़ा ही था कि देखा, साहिर मेरे कन्धे पर हाथ रखकर कह रहे हैं,नौजवान, इतनी रात को जा रहे हो…खाना नहीं खा रहे हो, तो ये रुपए रख लो.’ वह मुझे कुछ देना चाहते थे लेकिन मैने नहीं लिया और तेज़ क़दमों से नीचे उतर आया”.

ऐसा था बच्चों की तरह रूठ जाने वाला और इंसानों की तरह इंसानों की सोचने वाला साहिर लुधियानवी.

आस्मां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम

साहिर ने लिखा था ‘ आस्मां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम / आजकल वो इस तरफ देखता है कम’(फिर सुबह होगी). मुझे यकीन है कि हम सब इस बात को तहे-दिल से मानते हैं. मैं इसे न सिर्फ मानता हूं बल्कि इस बात पर मेरा ‘उससे’ झगड़ा भी है. आख़िर को जिस ज़मीन पर हमें भेज दिया वहां किसी तरह का इंसाफ की पाबंदी वाला  एक निज़ाम तो हो. अगर ये मुमकिन नहीं तो फिर ये जहां क्यों हो ?

साहिर ने तमाम उम्र इसी नाइंसाफी, ग़ैर बराबरी, वहशत और दहशत के ख़िलाफ आवाज़ बुलन्द की. संगीतकार ख़य्याम, जिनके साथ साहिर ने ‘फिर सुबह होगी’, ‘कभी-कभी’ और ‘शगुन’ जैसी फिल्में की, कहते हैं – ‘क्या हम इस बात की कल्पना भी कर सकते है कि साहिर के अलावा किसी दिन, किसी गीत में ‘ मैं देखूं तो सही दुनिया तुम्हे कैसे सताती है / कोई दिन के लिए, अपनी निगहबानी मुझे दे दो’(शगुन) जैसी बात कोई दूसरा कह सकेगा ?

यह बात इसलिए ज़्यादा मह्त्वपूर्ण है क्योंकि यह बात नायक से उसकी प्रेमिका कह रही है. वह भी उस दौर में जिस दौर में औरत को ‘अबला’ की पहचान दी गई थी. लेकिन साहिर की ‘अबला’ ज़माने को चुनौती देती है कि उसकी निगहबानी में मुश्किल में फंसे ‘मर्द’ को छूकर दिखा दे.

इन्ही वजहों से यश चौपड़ा जैसे फिल्मकार कहते हैं कि ‘साहिर के गीतों से पूरी फिल्म का मय्यार ऊंचा हो जाता था’. यही वजह थी कि बी.आर.चौपड़ा की लगभग सारी फिल्मों के गीतकार साहिर ही रहे, भले ही संगीतकार एन.दत्ता हों, ओ.पी.नैयर हो या फिर रवि.

यश जी ने तो अपनी फिल्म ‘कभी कभी’ (76) में साहिर के गीतों के सहारे बना ली लेकिन 1980 में साहिर की मौत के बाद भी वो उनके दिलो-दिमाग से परे न हुए.सो 1998 में उन्होने साहिर की ज़िन्दगी पर एक फिल्म बनाने का इरादा ज़ाहिर किया था. फिल्म में अमिताभ बच्चन को साहिर की भूमिका, शबाना आज़मी को अमृता प्रीतम की भूमिका के लिए चुन भी लिया था और इस त्रिकोण की दूसरी नायिका का चयन के लिए कई नाम थे. इस दूसरी नायिका का चरित्र गायिका सुधा मल्होत्रा पर आधारित था.

अब मैं आता हूं उस ऊपर वाली बात पर वापस कि ‘…आजकल वो इस तरफ देखता है कम’. उसने साहिर को फन और कामयाबी दोनो दिए लेकिन उसके बदले में उससे क्या-क्या न छीना गया. बचपन में बाप का साया. जवानी में दर्जन भर नाकाम इश्क़ और तन्हाई. तन्हा-तन्हा सांसों के साथ मां का आंचल थामे-थामे जीते रहे.

1978 में मां के देहांत के बाद साहिर टूट गए. इसी के बाद उन्हें पहली बार हार्ट अटैक हुआ. दो साल बाद वे अपने टूटे हुए दिल के साथ ख़ुद भी इस दुनिया को अलविदा कह चले.

गोया कि जीते जी हुए ज़ुल्म काफी न थे, सो मरने के बाद भी यह सिलसिला बना हुआ है. 1970 में उन्होने बेहद शौक़ से एक विशाल घर बनाया था, जिसका नाम है ‘परछाइयां’. इस नाम की उनकी एक बेहद ख़ूबसूरत नज़्म भी है.

आज उस घर का कोई वारिस नहीं है सो कई लोगों ने उस पर कब्ज़ा जमा रखा है. साहिर के उस ड्राइंग रूम मेंजहां हर शाम बेहतरीन स्काच और लज़ीज़ ख़ानों की दावतें होती थीं, कुछ बिल्डरों की निगाह में है. सैंकड़ों अप्रकाशित गीत,ग़ज़ल रद्दी में तुलकर बिक चुके हैं.

मौत के बाद उन्हें जुहू के कब्रिस्तान में एक जगह मिली थी वह भी अब बुलडोज़रों की ज़द में आकर मिट चुकी है.

साहिर के लिए यह नया नहीं है. 1947 के बंटवारे के बाद साहिर मां की वजह से लाहौर में रुक गए थे. उस समय वे पत्रिका ‘सवेरा के सम्पादक थे. जब तक वे वापस हिन्दुस्तान आते तब तक कस्टोडियन ने लुधियाना में उनके मकान को भी भारत छोड़कर जाने वालो में शुमार करके राजसात कर किसी और के नाम कर दिया. तमाम कोशिशो के बाद भी साहिर उस मकान को वापस हासिल न कर सके.

और…

और जाते-जाते, पिछली बार ‘इश्क़-इश्क़’ में ‘कोहे-तूर’ की जगह ‘कोहे-नूर’ छप गया है सो ठीक कर लें. दूसरी बात आपने साहिर के बहुत सारे गीत शामिल करने की फरमाइश की थी पर एक भी नहीं कर पाया. मैं खुद भी उन गीतों के साथ ही साहिर की शायरी, उनकी और ढेरों बातें कहना चाहता था लेकिन वही न कि अपना सोचा हुआ सब होता कहां है.

तीसरी और आज की आख़िरी बात. लगातार चार हफ्ते साहिर की बात करते-करते मैं इतना साहिरमय हो चुका हूं कि अब अगली बार किसी दूसरे गीतकार की बात तो नहीं ही कर पाऊंगा. कुछ एंड-बेंड करके दिमाग को ज़रा हल्का करूंगा. और फिर जब होश में आया तो इस गीतकारों वाले सिलसिले को दुबारा शुरू करेंगे. नहीं, मतलब, अपनी तो आपस की बात है न तो छुपाने की क्या ज़रूरत, खुल के कहो, ख़ुश रहो.

तो बस फिर मिलते हैं अगले हफ्ते. तब तक. जय-जय.

(दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट रसरंग में 2 मई 2010 को प्रकाशित)

तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर कहां हो तुम (साहिर-1)
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा‘ (साहिर-2)
अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम‘ (साहिर-3)
मैं ज़िंदा हूं यह मुश्तहर कीजिये…(साहिर-4)

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  1. Satish Kumar Shukla says:

    The point though is to perpetuate Sahir’s good, nay, fantastic work.
    I have attempted that through WELTSCHMERZ, a book of English verse I got published in 2006 at Writers’ Workshop in Kolkata.
    This book has been dedicated to Sahir Ludhianavi.
    Its content is along Sahir idiom; besides there are three poems with Sahir in focus including translation of Parchhaiyaan.
    I mean the best means to carry forward Sahir flame is to recreate his old Jadoo in accordance with our lives’ new conditions. WELTSCHMERZ does pretty much that! Didn’t Sahir himself say as much: KAL AUR AYENGE MUJH SE BEHTAR KEHNE WALE!

    The world goes on, full of challenges, surprises, good things and better things and best things as those bad and worse and sure worst.
    Sahir excelled to his time, we must to the ours.
    So!

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