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…ख़ुदा ख़ैर करे

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…ख़ुदा ख़ैर करे

राजकुमार केसवानी

 

 

एक मान्यता के अनुसार इस सृष्टि में एक ऐसी आत्मा मौजूद है जो हर नए पैदा हुए बच्चे के कान में बारी-बारी से एक हंसाने वाली और एक रुलाने वाली बात कहती है. इसी वजह से हर नया पैदा हुआ बच्चा कभी हंसता और कभी रोता है. मुझे लगता है इस मान्यता में एक कमी है. वह कमी यह है कि कि वह आत्मा सिर्फ बच्चपन के उस झूले से बाहर भी ज़िन्दगी में हर जगह इसी तरह हंसाती-रुलाती है. आपकी ज़िन्दगी में भी इस बात को मानने के हज़ार कारण मौजूद होंगे और मेरे पास भी हैं ही. कुच्छ अपने, कुच्छ पराए.

ऐसी ही दो कहानियां आज मैं आपको सुनाना चाहता हूं. दोनो कहानियों का पहला हिसा कहते खुशी होती है और दूसरा कहता आंसू बहते हैं. खैर ! शुरू करता हूं. एक थे कब्बन मिर्ज़ा. नहीं, जल्दी न करें. ज़रा सब्र से काम लें. हां, तो कब्बन मिर्ज़ा के नाम से विविध  भारती सुनने वाले लोग तो एक ज़माने से इस नाम से बखूबी वाकिफ होंगे ही मगर बाकी सब भी कमाल अमरोही की फिल्म ‘रज़िया सुल्तान’ के दो अमर गीत ‘ आई ज़ंजीर की झंकार,खुदा खैर करे’ और ‘तेरा हिज्र मेरा नसीब है’ नहीं भूले होंगे. खैयाम साहब के मदहोश कर देने वाले संगीत के साथ दिल की अंतिम गहराई से गूंजकर निकलती हुई एक अनोखी, रुवाबदार और कड़क आवाज़ है जो सीधे आपके दिल की उसी गहराई में जा पहुंचती है, जिस गहराई से वह निकली थी. यह कब्बन मिर्ज़ा साहब की आवाज़ है.

कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ मेरे बचपन या कहूं लड़कपन ( याद ही नहीं आता कब बचपन से लड़कपन की देहरी लांघी और कब इस इस उम्र तक आ पहुंचा. हर गुज़रा हुआ दिन लगता है बचपन का दिन था. हर दिन कुच्छ नादानी अब भी होती है. अगले दिन खुद को बच्चा समझकर माफ कर देता हूं. खैर. ये कहानी फिर सही) की यादों के साथ इस कदर जुड़ी है कि उसके बिना कुच्छ पूरा होता ही नहीं. क्योंकि अब तक की तमाम उम्र रेडियो के साथ ही गुज़री है. आज के दौर में अगर कमल शर्मा,अहमद वसी,ममता शर्मा और यूनुस खान की आवाज़ें हैं तो उस ज़माने में कब्बन मिर्ज़ा के साथ बृजमोहन,दीनानाथ,विनोद शर्मा,देवकीनदन पांडे जैसी खूबसूरत आवाज़ें थीं. संगीत सरिता,हवा महल और छाया गीत जैसे कार्यक्रम दीवाना बनाए रहते थे. उस वक़्त इन आवाज़ों को किसी और तरह या और जगह सोच नहीं पाया था. लेकिन इनमें से कम से कम दो आवाज़ें बाहर भी सुनाई दीं. विनोद शर्मा फिल्म और विज्ञापन में और कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ फिल्मी गीत में. और वो भी ऐसा गीत कि सुनने वाला अगर सोता हो तो चौंककर उठ जाए, जागता हो तो उसे लगने लगे कि उसकी आत्मा ने ही गाना शुरू कर दिया है.

कमाल अमरोही की फिल्में देखने वाले जानते ही हैं कि वे किस कदर दीवानगी में डूबकर फिल्में बनाते थे. कहीं भी एक राई-रती की कमी उन्हें मंज़ूर न होती. सो खैयाम साहब को इल्तमश और रज़िया सुल्तान के ज़माने का पूरा इतिहास पढ़ा डाला. उस दौर में बजने वाले सारे साज़ों की फहरिस्त थमा दी. खैयाम साहब खुद भी कुच्छ कम नहीं थे. सो कदम-कदम पर मेहनत थी. जब सवाल आया कि फिल्म में रज़िया सुल्तान (हेमा मालिनी) के ग़ुलाम और फिर आशिक़ याकूब (धर्मेद्र)  वाला गीत कौन गाए तो गुत्थी ज़रा उलझ गई. कमाल साहब को उस वक़्त मौजूद कोई मरदाना आवाज़ इस काबिल न लगती थी. कि यह गीत गा सके,लिहाज़ा आवाज़ की तलाश 50 से भी ज़्यादा गायको का आडीशन हुआ. नतीजा फिर भी न निकला.

कब्बन मिर्ज़ा

इसी नाउम्मीदी के दौर में किसी ने कब्बन मिर्ज़ा का नाम सुझाया. इन साहब ने उन्हें मोहर्रम के दौरान मर्सिये और नोहे (हज़रत इमाम हुस्सैन की शहादत के शोक में में गाए जाने वाले गीत. इसे गाने वाले को नोहेख्वां कहा जाता है). गाते हुए सुना था. तीर एक्दम निशाने पर लगा था. कब्बन मिर्ज़ा को संगीत की बहुत अच्छी समझ थी. वे गाते तो थे ही, बरसो हर सुबह दुनिया को संगीत सरिता के ज़रिए किसी गुणी के साथ संगीत की बारीकियॉ पर चर्चा भी करते ही थे. और सबसे बड़ी बात तो ये कि उनके पास वो आवाज़ ठीक जो किसी गाने वाले के पास न ठीक और न शायद है.

सो पहले एक और फिर दूसरा गाना रिकार्ड हुआ. पहला गीत लिखा जांनिसार अख्तर ने और दूसरा निदा फाज़ली ने. दोनो गीत जब बाज़ार में आए तो धूम मचा दी. कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ का जादू चारों तरफ फैल गया. शायद नौकरी के फेर में उन्हें वक़्त न मिल पाया कि वे फिल्मों में बहुत गा पाते या फिर इस तरह की आवाज़ सिर्फ पार्श्व गीतों में ही काम आ सकती थी. सो जब नौकरी से फुर्सत हुई तो शायद उस आत्मा ने कान. में ऐसी बात कही कि उस पर सिवाय रोने के कुच्छ न कहा जा सके. कब्बन मिर्ज़ा को गले का कैंसर हो गया.

पहली बार जसलोक अस्पताल में इलाज हुआ. फायदा हुआ. घर लौटे. बीमारी भी लौट आई. इस बार आवाज़ ही चली गई. और एक दिन वे खुद भी खामोशी के साथ चले गए.

मुझे अब तक उनकी मौत की सही तारीख नहीं मालूम. सो नहीं लिख रहा. हां, इतना ज़रूर मालूम है कि मीडिया में उनकी कभी खास बात नही हुई. शायद मौत की खबर भी न छपी. कम से कम मैने तो नहीं पढ़ी. एक बार 2003 में ‘इंडियन एक्स्प्रेस्’ ने ज़रूर एक रिपोर्ट  छापी थी. तब वे आवाज़ खो चुके थे और दीवार से टिके घर की छत को आसमान समझकर देखते रहते थे. जब रिपोर्टर उनके घर से लौट रहा था तब कब्बन मिर्ज़ा ने एक पर्ची पर लिखकर दिया था कि उन्होने फिल्म ‘शीबा’ मे अपने गाए गीत के बोल लिखकर बताया कि इस गीत की क्रेडिट में उनका नाम नहीं दिया गया था. मुझे यकीन है बिना उस गीत के भी ऊपर कब्बन मिर्ज़ा के खाते में बहुत सारा क्रेडिट होगा. इतना तो ज़रूर हे कि उनको जन्नत में जगह मिल सके.

(पुनश्च: बहुत खोजबीन के बाद कब्बन मोर्ज़ा की आवाज़ में एक और गीत तलाश पाया हूं. 1964 में रिलीज़ हुई स्टंट फिल्म ‘कैप्टन आज़ाद’ में – आज उनके पा-ए-नाज़ पे सजदा करेंगे हम / उनके बग़ैर जी के भला क्या करेंगे हम.’ इस फिल्म में पीटर-नवाब का संगीत था.)

 

(दैनिक भास्कर की रविवारीय पत्रिका ‘रसरंग’ में कालम ‘आपस की बात’ के अंतर्गत 7 अक्टोबर 2007 को प्रकाशित)

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  1. rafat alam says:

    आपकी लेखनी के जादू से लिखते वक्त पूरी तरह पास्ट् में चला गया . विविध भारती की भूलीबिसरी धुन कानों में रस घोलने लगी . संगीत सरिता,हवा महल और छायागीत फिजा में लहरा उठे . आई ज़ंजीर की झंकार,खुदा खैर करे के साथ कब्बन मिर्ज़ा साब की एंट्री हुई और रज़िया सुल्ताना के धमेन्द्र के घोड़े की टाप के साथ ज़हन के केनवास पर रंग बिरंगे चित्र उकरने लगे .
    साब,यह क्या झटके देने वाला स्टाइल है आपका -अच्छा खासा कब्बन साब के किस्से में खोया था मैं और कहानी में गले के कैंसर वाला ट्विस्ट ने आंखे नम कर दी और जीवन के श्रणभंगु होने का सच सामने आ गया .पर दुनिया में रहने तक दुनिया के साथ हँसना- रोना होगा . कला के शेत्र कमाल अमरोही साब,खैयाम साहब और रेडियो जगत वे सभी नाम जिनका ज़िक्र आपने किया है से फेसिनेट होते रहना होगा.
    पूरी शिद्दत और शोध के साथ लिखे गए लेख के लिए आपको साधूवाद

  2. bahut khub keswani jee

  3. रफत साहब, आप जैसे मोहब्बत करने वालों की वजह से ही यह सब मुमकिन हो रहा है. षुक्रिया.

  4. bahut shukriya, negiji.

  5. rafat alam says:

    ज़र्रानवाजिश ,आप का बड़प्पन है जनाब .खाकसार तो आप कि कलम का शेदाइ है .आप लेखन मदिरा से हम प्यासों को तर करते रहें .

  6. Keswani saahab, aapki baatein sunkar bada afsos hota hai apne aap par….ki is daur mein main mera janam kyun hua…wo beeta daur kitna anand wala tha…. Kaash aisa ho pata main dobara se janam le pata… Khair aapki baatein sunkar/padhkar hi kuch pal ke liye hi sahi us daur se rubaru ho jata hoon… bahut bahut shukriya

  7. It was interesting about Mr. Kabban Mirza. We says, ‘Old is Gold’. I heard lot of things about him you can say it is a IJAFA. I love his both songs. You can say my all time fevts. Woh aawaz, woh gehrayi ab shayad hi kabhi sun paayenge listeners.

    From Jaya

  8. It is always nice to go through the text from your pen.How you recollect all these minute details?
    from Deepak Kumar Sharma

  9. deepak kumar says:

    if you have knowledg & dvd of movie bharosa 1940. please read article and send to me.AT FIRST TIME THIS MOVIE IS BASED ON RESULTS OF WIFE SWAPPING. BROTHER & SISTER FALLS IN LOVE AFFAIR. FROM: DEEPAK KUMAR GARG [JOURNLIST] HIRA SINGH NAGAR KOTKAPURA 151204 PUNJAB MOB:09872025607

  10. इस लेख में जो “शीबा” फिल्म का ज़िक्र किया गया है वो फ़िल्म “जंगल किंग” नाम से सन 1959 में प्रदर्शित हुई थी और कब्बन मिर्ज़ा के गाने के बोल थे “इस प्यार की बस्ती में” जिसे अंजुम जयपुरी साहब ने लिखा था और संगीत दिया था बिपिन और बाबुल ने। इस गाने को कब्बन मिर्ज़ा के साथ सुमन कल्यानपुर, बाबुल और साथियों ने गाय था।

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