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यह मुग़ल-ए-आज़म है, सलीम-ए-आज़म नहीं

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मुग़ल-ए-आज़म – 2

राजकुमार केसवानी

मित्रों, पिछली बार बात ख़त्म करनी थी तो मैने ‘मुग़ल-ए-आज़म’ का प्रीमियर करवा दिया, लेकिन ऐसा थोड़े ही है कि बात पूरी हो गई. अभी तो बहुत बाकी है. तो चलिए, आज बात यह की जाए कि आख़िर इस फिल्म को बनने में इतने सारे बरस क्यों लग गए.

सबसे पहले तो सवाल था पैसे का. पैसे का जुगाड़ जमा तो दूसरा सवाल था ; मरहूम चन्द्रमोहन की जगह अकबर की भूमिका कौन करे. ख़ैर, यह सवाल भी थोड़ी बहुत उलझन के बाद सुलझ गया और पृथ्वीराज कपूर आ गए. 50 के दशक के आते-आते सप्रू का बाज़ार और चेहरे का हुस्न ढलान पर था सो आसिफ को सलीम भी नया चाहिये था. आसिफ को दिलीप कुमार की सूरत में अपना सलीम दिखाई दे गया. हालांकि आसिफ और दिलीप कुमार की बहुत दोस्ती थी लेकिन शुरू में दिलीप कुमार ने इंकार कर दिया. वजह यह कि उन्हें ख़ुद के चेहरे में कहीं भी शहज़ादा सलीम वाली कोई बात नज़र नहीं आ रही थी. तमाम बहस-मुबाहिसे के बाद दोस्ती की जीत हुई और दिलीप साहब ने यह रोल स्वीकार कर लिया.

जहां तक सवाल था जोधा बाई के रोल का तो पहली फिल्म में भी यह रोल दुर्गा खोटे ही कर रही थीं और नई फिल्म में भी उन्हीं को इस रोल के लिए चुना गया. लेकिन दो और खास किरदार थे बहार और दुर्जन सिंह का. तो पहला रोल मिला निगार सुल्ताना को और दूसरा रोल मिला अजीत को.

इसमें एक मज़े की बात है. आसिफ बहुत ही महीन कातने वाले इंसान थे. उन्होने फिल्म हर छोटे से छोटे किरदार का आडीशन ख़ुद किया. दुर्जन सिंह वाले रोल के लिए पहली बार, मतलब अधूरी छूटी फिल्म, के लिए अजीत और अभिनेता सुरेश का टेस्ट लिया गया और दोनो ही रिजेक्ट हो गए. उस समय यह रोल मिला था हिमालयवाला नाम के अभिनेता को जो बंटवारे के बाद पाकिस्तान चले गए. इस बार जब फिल्म शुरू हुई तो अजीत को मौका मिल गया. और अजीत ने क्या ख़ूब मौके का फायदा उठाया.

धीरे-धीरे सारी टीम जुट गई लेकिन नरगिस की जगह अनारकली कौन हो, इस सवाल का जवाब ढूंढते-ढूंढते आसिफ और उनकी टीम को एक ज़माना लग गया. हालांकि आख़िर में जैसा कि हम सब जानते हैं मधुबाला अनारकली बनीं लेकिन उससे पहले बड़ा तमाशा हुआ.

अनार ! तुम कहां हो ?

जब फिल्म बनाने वाला आसिफ जैसा दीवाना हो जो हर काम को परफेक्शन से भी एक कदम आगे की हद तक जाकर करने का आदी हो तो उन कदमों के निशान भी सदियों तक दास्तान बनकर जीते हैं. ऐसी ही एक दास्तान है ‘तलाश-ए-अनारकली’.

आसिफ की तलाश शुरू तो हुई फिल्मी दुनिया से ही लेकिन आगे जाकर यह सारे ज़माने तक फैल गई. न जाने कितनी-कितनी नामचीन हीरोइनो को बुलाया गया और रिजेक्ट किया गया. इस बात को लेकर अप्रेल 1951 की ‘फिल्म इंडिया’ नाम की पत्रिका में पूरे एक पेज की रिपोर्ट छपी हुई है कि किस तरह हीरोइनें आसिफ को हर तरह से रिझाकर, उसकी चिरोरियां करके अनारकली बनने पर उतारू हैं.

आसिफ यूं भले ही बड़े शौक़ीन इंसान थे लेकिन अपने काम में एक रत्ती भर का समझौता नहीं करते थे, फिर चाहे दिलीप कुमार जैसा जिगरी दोस्त ही सामने क्यों न हो. शूटिंग के दौरान जब दिलीप कुमार ने शिकायत की कि पृथ्वीराज के संवाद इतने तगड़े हैं कि उसकी सलीम वाली भूमिका दब रही है. आसिफ का जवाब था – ‘मैं मुग़ल-ए-आज़म बना रहा हूं सईम-ए-आज़म नहीं.’

अब ऐसा इंसान आख़िर किसी हीरोइन के चक्कर में आकर कैसे अपनी फिल्म से समझौता करता सो नहीं किया. जुलाई 1951 में हिन्दुस्तान की हीरोइनों से नाउम्मीद होकर आसिफ ने हालीवुड की उस दौर में बेहद मशहूर हीरोइन रीत्ता हेवर्थ को तार भेजकर अनारकली की भूमिका के लिए निमंत्रण भेजा लेकिन बात नहीं बनी.

आसिफ ने अब हिन्दुस्तान के घरों से अपनी अनारकली की तलाश शुरू की. अखबारों में विज्ञापन देकर नई लड़कियों को किस्मत आज़माने का मौका दिया गया. भोपाल,लखनऊ, दिल्ली और हैदराबाद जैसे शहरों में ख़ूब इंटरव्यू हुए लेकिन आसिफ के ख़्वाबों की अनारकली कहीं नहीं मिली.

मधुबाला को लेकर आसिफ पहले भी सोच चुके थे लेकिन उसके बाप अत्ताउल्ला ख़ान के रवैये की वजह से काफी हिचकिचाहट थी. आख़िर को दिलीप कुमार के दख़ल से बात बन गई. अनारकली को आख़िर उसकी आत्मा मिल गई और आसिफ को उसकी अनारकली.

अब बात आई संगीतकार की. पहले वाली फिल्म में आसिफ ने संगीतकार लिया था अनिल बिस्वास को. इस बार उनने इरादा किया नौशाद को लेने का. नौशाद साहब भी दिलीप कुमार की तरह पहले इंकार करते रहे लेकिन आख़िर को आसिफ की मज़बूत इरादे के आगे हार गए.

नौशाद साहब का फिल्म न करने का कारण यह नहीं था कि उन्हे संगीत कम्पोज़ करने में कोई तक़लीफ होती. उसकी वजह थी ख़ुद के. आसिफ, जिसकी दीवानगी से नौशाद साहब काफी ख़ौफ खाते थे. दीवानगी, जिसे उन्होने आसिफ के बम्बई में शुरूआती दौर में देखा था. मेरे मित्र रफी शब्बीर ने किसी वक़्त मुझे मुग़ल-ए-आज़म को लेकर नौशाद साहब का एक पुराना लेख दिया था. इसमें उन्होने आसिफ को लेकर जिस तरह बयान किया है सोचता हूं उन्हीं की ज़ुबानी आपको सुना दूं.

“ उस ज़माने में ख़ुदादाद सर्कल दादर में चरित्र अभिनेता जीवन और प्रेम अदीब ने पार्टनरशिप में ये होटल खोला था. इसी होटल में रात के वक़्त अक्सर के आसिफ भी बैठते थे. आसिफ साहब अपने मामू नज़ीर साहब के साथ रहते थे और नज़ीर साहब ने आसिफ साहब को दादर में दर्जी की दुकान खुलवाई थी, अक्सर हम साथ बैठते तो के.आसिफ बड़ी-बड़ी बातें करते. कहते क्या फिल्में बन रही हैं, फिल्में मैं बनाऊंगा. हम कहते – ‘यार तुम बेकार की बातें क्यों करते हो, तुम्हारा काम कपड़े सीना है. कपड़े सीते रहो. के. आसिफ जवाब देता- ‘यार मुझे तो मामू ने धंधे में फंसा दिया, वरना मेरी मंज़िल तो फिल्म बनाना है.’

ख़ैर साहब, आख़िर को मामू को भी मजबूरन भांजे को फिल्म लाईन में अपने साथ लाना पड़ा. लेकिन आसिफ की मज़िल मामू के सिनेमा से बहुत आगे थी. सो आख़िर को एक दिन यह भी आया कि आसिफ साहब नौशाद के घर फिल्म मुग़ल-ए-आज़म के संगीत के लिए उनके घर जा पहुचे.

चौधरी ज़िया इमाम की पुस्तक ‘नौशाद- ज़र्रा जो आफताब बना’ में उस मंज़र को इस तरह बयान किया गया है. ‘एक दिन नौशाद साहब अपने घर में एक फिल्म की मौसीकी पर काम कर रहे थे तभी उनसे मिलने के. आसिफ आए और कहने लगे ; ‘मैं एक फिल्म बनाने जा रहा हूं.’ इस पर नौशाद साहब ने पूछा – ‘कौन सी फिल्म बना रहे हो?’ तो उन्होने कहा – ‘मुग़ल-ए-आज़म और इस फिल्म की मौसीकी आप ही को देनी है.’ नौशाद साहब ने कहा – ‘अभी मेरे पास वक़्त नहीं है. मैं बहुत मसरूफ हूं और तबीयत भी ठीक नहीं है. आप किसी और मौसीकार से बात कर लें.’ आसिफ साहब ने यह सुना तो एक लाख रुपए का बंडल उनके हारमोनियम पर रखते हुए बोले – ‘यह एडवांस रख लीजिए, मौसी की तो आप ही को देनी है.’ तो नौशाद साहब ने कहा – ‘क्या आप समझते हैं कि पैसे से हर चीज़ ख़रीदी जा सकती है और आप हर चीज़ ख़रीद लेंगे? अपने पैसे उठाइये मैं फिल्म नहीं करूंगा.’

इस पर आसिफ साहब ने चुटकी बजाते हुए कहा – ‘कैसे नहीं करेंगे. इतने पैसे दूंगा कि आज तक किसी ने नहीं दिए होंगे.’ जब आसिफ साहब का इसरार और पैसे की बात बढ़ गई तो इन्होने (नौशाद ने) गुस्से में आकर नोटों का बंडल फैंक दिया. कमरे में नोट ही नोट बिखर गए. इतने में नौशाद साहब की बेग़म नौकर के साथ छत पर आ गईं. उन्होने नौकर के साथ मिलकर नोट समेटे और पूरा माजरा जाना. आसिफ साहब चुटकी बजाते रहे और मुस्कराते रहे फिर नौशाद साहब ने उनसे कहा – ‘अछा आसिफ साहब आप अपने नोट अपने पास रखिए हम फिल्म साथ करेंगे.’

तो यह थी नौशाद साहब की स्टोरी. इसे वे ख़ुद भी कई बार अपने इंटरव्यूज़ के दौरान भी सुना चुके हैं. बहुत ही दिलचस्प अन्दाज़ में. उनकी किस्सागोई सुनते हुए मुझे अक्सर लगता रहा है कि उन्हें कहानीकार भी होना चाहिये था. ख़ैर.

और…

उस्ताद साअदत हसन मंटो के एक किस्से के साथ आज की बात पूरी. एक बार के.आसिफ मंटॉ को फिल्म की कहानी सुनाने पहुंचे.

‘मैं तुम्हे अपनी कहानी सुनाने आया हू.’ मैने अज़र-राहे मज़ाक़ कहा : ‘तुम्हे मालूम है, मैं फीस लिया करता हूं?’

आसिफ फौरन पलट कर लौट गए. मंटो अफसोस करते रहे कि ख्वामखाह मज़ाक़ कर दिया. थोड़ी देर में एक आदमी ने आकर मंटो को एक लिफाफा दिया जिसमें सौ-सौ के पांच नोट थे. खिड़की से झांका तो नीचे से आसिफ ने आवाज़ दी – ‘फीस हाज़िर है. अब मैं कल आऊंगा.’

अगले दिन  आसिफ आए. कहानी सुनाई. कहानी सुनाकर पूछा – ‘क्या ख़्याल है आपका कहानी के मुत्ताल्लिक?’ मंटो ने कहा ‘बकवास है.’ हैरत से दुबारा पूछा. दुबारा वही जवाब. उसके बाद आसिफ ने उठकर मंटो का हाथ चूमा और कहा ‘ख़ुदा की कसम बिल्कुल बकवास है… मैं तुमसे यही सुनने आया था.’

तो ऐसे थे आसिफ साहब और ऐसे थे उस्ताद. हम लोगों के लिए कितनी इबरत भरी कहानियां छोड़ गए हैं. वाह !

अब इस घड़ी आपको छोड़कर जाने का मन तो बिल्कुल नहीं है लेकिन आने के लिए जाना तो पड़ेगा. सो बस अगली बार फिर मुग़ल-ए-आज़म की आगे की कहानी. और हम और आप और ये आपस की बात.

जय-जय.

(दैनिक भास्कर के रविवारीय रसरंग में 29 अगस्त 2010 को प्रकाशित)

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  1. कई दिन इंतज़ार था पोस्ट पर मुगल ए आज़म -२ पढ़ने का . आप ने सुंदर प्रस्तुति द्वारा निराश भी नहीं किया .के आसिफ साब द्वारा किरदारों की तलाश का किस्सा हो जिसमें अनारकली सहित सभी शामिल थे (आपका पोस्ट किया हुआ स्व. मधु बाला जी का चित्र जिसे अभी अभी मैं देर तक देख कर बेमिसाल हुस्न से चमत्कृत हुआ ओर उदास भी हुआ हूँ .हाय ज़मीं खा गयी अस्मा कैसे कैसे ),मंटो साब वाला वाकया या नोशाद साब के संगीतकार के रूप में चयन का किस्सा आपने किस्सागोई की आबरू रखते हुए अपने ही अंदाज़ में सुना (पढ़ा) कर आनंदित कराया है .चूँकि शाहकार आसिफ साब का था ,किस्से में भी आसिफ साब ही हैं ओर खूब हैं.मुगल ए आज़म के तीसरे हिस्से का बेसब्री से इंतज़ार रहेगा.

  2. amazing post….
    was waiting for something like tthis tto come on the net as i was not abble to get the original in the newspaper
    i just loved it.

  3. dev anand mahanama says:

    hidustan ki sabse hasin aur behatrin adakara ke bare jitna likha jaye utna kam hai .keshwaniji ka ye prayas sar aankhon par

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