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‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा’ (साहिर-2)

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‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान  बनेगा

राजकुमार केसवानी

हां जी, तो पिछले हफ्ते की बात में साहिर लुधियानवी साहब बम्बई पहुंच चुके थे. फिल्मों में गीत लिखने का सिलसिला शुरू हो चुका था. ‘ठंडी हवाएं, लहरा के आएं’ (लत्ता-नौजवान-1951) के साथ ही साहिर की ज़िन्दगी की जदोजहद की तपिश में पुरसुकून ठंडक ने दस्तक दी.

‘नौजवान’ से संगीतकार एस.डी.बर्मन के साथ साहिर का सफर शुरू हुआ तो इस जोड़ी ने मिलकर ऐसे अमर गीत रचे कि आज तक बेजान रूहों को हयात करने का दम रखते हैं. ‘तदबीर से बिगड़ी हुई तक़दीर बना ले’, ‘ये कौन आया कि मेरे दिल की दुनिया में बहार आई’ (गीता दत्त-बाज़ी-51), ‘ये रात ये चान्दनी फिर कहां, सुन जा दिल की दास्तां’ (हेमंत कुमार-लत्ता-जाल-52), ‘जाएं तो जाए कहां, समझेगा कौन यहां / दर्द भरे दिल की ज़ुबां’, ‘दिल जले तो जले, ग़म पले तो पले / किसी की न सुन गाए जा’, ‘दिल से मिलाके दिल चार कीजिए’, ‘चाहे कोई ख़ुश हो चाहे गालियां हज़ार दे / मस्तराम बनके ज़िन्दगी के दिन गुज़ार दे’ (टैक्सी ड्राईवर-54), ‘जिसे तू कबूल कर ले वो अदा कहां से लाऊं’ (लत्ता-देवदास-55), ‘तेरी दुनिया में जीने तो बेहतर है कि मर जाएं’ , ‘फैली हुई हैं सपनों की बाहें, आजा चल दें कहीं दूर’ (हाऊस न.44), ‘जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला, हमने तो जब कलियां मांगीं कांटो का हार मिला’, ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहां हैं’, ‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है’, (प्यासा-57).

साहिर ने इन गीतों के ज़रिये एक कमाल कर दिखाया. बिना अपने कवि तत्व को खोए, सरल और सुबोध भाषा में गीतों की रचना की. फिल्म की किसी ख़ास सिचुएशन के लिए लिखे जाने के बावजूद, साहिर के गीतों में एक अदभुत सार्वजनिक व्यापकता और ऊंचे मयार की शायरी है. अब ज़रा मिसाल के तौर पर इस गीत पर ग़ौर फरमाएं. ‘ये रात ये चान्दनी फिर कहां, सुन जा दिल की दास्तां’ अंतरे में सादा लफ्ज़ और ख़ूबसूरत शायरी देखिये.

हे, लहरों के होंठों पे धीमा-धीमा राग है / भीगी हवाओं में ठंडी-ठंडी आग है / इस हसीन आग में तू भी जल के देख ले / ज़िन्दगी के गीत की धुन बदल के देख ले / खुलने दे अब धड़कनों की ज़ुबां’ या फिर ‘ फैली हुई हैं सपनो की बाहें’ के अंतरे में पंजाबी के एक लफ्ज़ ‘धनक’ (इन्द्रधनुष) को कितनी खूबसूरती से इस्तेमाल करके एक हसीन ख़याल को शक्ल दी है ‘ झूला धनक का धीरे-धीरे हम झूलें / अम्बर तो क्या है तारों के भी लब छू लें’.

गुलज़ार साहब की व्याख्या में…साहिर के गीतों पर शायरी के वक़ार और ऊंचाई की मुहर है ‘ वे मानते हैं कि उनके गीतों में ऐसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल हुआ है जो अपने आप में संगीत से भरे हुए हैं. मिसाल के तौर पर 1952 की फिल्म ‘जाल’ में लता जी का गाया गीत ‘पिघला है सोना दूर गगन पर / फैल रहे हैं शाम के साये’. या फिर इसी फिल्म से हेमंत कुमार की आवाज़ में ‘ ये रात ये चान्दनी फिर कहां / सुन जा दिल की दातां’ के अंतरे में ‘ पेड़ों की शाखों पर, सोई-सोई चान्दनी / और थोड़ी देर में थक के लौट जाएगी’.

इस वक़्त जब मैं साहिर साहब के गीतों की ख़ूबी की बात कर रहा हूं, मुझे नरगिस जी का एक लेख याद आ रहा है. किसी ज़माने में उर्दू में छपा साहिर साहन पर उनके इस लेख में उन्होने कहा था. ‘ साहिर को हर लिहाज़ से महफूज़ रखना चाहिये – फिल्म इंडस्ट्री के लिए भी और उर्दू शायरी के लिये भी’. इस बात का खुलासा करते हुए कि उनका साहिर से उनका कभी कोई ख़ास तालुक़ नहीं रहा लेकिन उनकी शायरी की वे दीवानी है.

वे मानती थीं कि फिल्म ‘प्यासा’ का गीत ‘हम आपकी आंखों में इस दिल को बसा दें तो’ ऐसा रोमांटिक गीत है जिसे ‘…एक लड़की और एक लड़का अगर एक गीत के ज़रिये इज़हारे-मोहब्बत करना चाहें तो साहिर के लिखे इस गीत से मुख़्तलिफ कोई गीत नहीं गा सकते’. लेकिन साथ ही उनने यह भी बता दिया कि जब ‘…मैं अकेली, तन्हा होती हूं या अपने ख़यालों की दुनिया में डूबी होती हूं तो हमेशा गुनगुनाती हूं – ‘तंग आ चुके हैं कश्मकशे-ज़िन्दगी से हम / ठुकरा न दे जहां को कहीं, बेदिली से हम’

यह रचना असल में मोहम्मद रफी की आवाज़ में गुरूदत्त पर फिल्म ‘प्यासा’(57) में फिल्माई गई थी. एक साल बाद आशा भोंसले की आवाज़ में फिल्म ‘लाईट हाऊस’ (58) के लिए इसका मुखड़ा लेकर एक नया गीत बना दिया.रफी ने इसे बिना किसी साज़ या संगत के तरन्नुम में सुनाया है जबकि आशा जी के साथ पूरा आर्केस्ट्रा है.

इन गीतों ने साहिर को हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे मकाम पर पहुंचा दिया जहां अकेले वे ही थे. अब वे काम सिर्फ अपनी शर्तों पर करने लगे थे और लोग उनकी शर्तें मानकर भी उन्हीं से गीत लिखवाना चाहते थे. उनकी शर्तों ने उस दौर के सारे फिल्मी निज़ाम को बदल डाला. अब तक रेडियो पर गीत के साथ सिर्फ गायक और संगीतकार का नाम लिया जाता था, साहिर ने गीतकार को भी जगह दिलाई. अगर लत्ता मंगेशकर ने रिकार्ड बनाने वाली कम्पनी एच.एम.वी. को गायक को रायलटी देने पर मजबूर किया तो साहिर ने गीतकार को ये हक़ दिलवाया. गिनती के दो-चार अपवादों को छोड़कर उन्होने धुन के हिसाब से गीत नहीं लिखे बल्कि पहले गीत लिखे और फिर धुनें बनीं.

उनकी एक और शर्त थी जिसकी वजह से बहुत सारे संगीतकार चाहकर भी उनके साथ काम करने से कतराते थे. वे गीत में शब्द को ज़्यादा महत्वपूर्ण मानते थे. या यूं कहें कि वे मानते थे कि गीतों की लोकप्रियता में संगीतकार से ज़्यादा उनके गीतों का योगदान था. इसी कारण वे अपनी फीस उस दौर के नामचीन संगीतकारों की फीस से एक रुपया ज़्यादा मांगते थे.

बाकी शर्ते तो ठीक, लिखने के लिए बाद में संगीतकार भी अपनी ही पसन्द का चाहते थे.निर्माता-निदेशक उनकी इस शर्त को मान लेते थे. यश चौपड़ा जैसे बड़े निर्माता-निदेशक ने भी ‘दाग़’(1973) के बाद जब ‘कभी कभी’ (76) शुरू की तो साहिर ने लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जगह ख़य्याम को बतौर संगीतकार मांग लिया. यश जी के पास इसे मानने के अलावा कोई चारा न था. आख़िर को इस फिल्म के नायक का चरित्र भी साहिर की ज़िन्दगी से प्रेरित होकर लिखा गया था.

लेकिन यह कोई पहला मौका नहीं था. साहिर ने पचास के दशक में ही एस.डी.बर्मन के सहायक एन.दत्ता (दत्ता नायक) को बतौर स्वतंत्र संगीतकार स्थापित होने में बहुत मदद की. ढेरों फिल्मों में काम दिलाया और ख़ुद बिना फिल्म के बजट की फिक्र किए गीत भी लिखे. इस मोहब्बत का नतीजे में जो नगीने पैदा हुए ज़रा एक नज़र उन पर डाल लें. ए.दत्ता की पहली फिल्म ‘मिलाप’(1955) में लत्ता का गीत ‘चान्द तारों का समा, खो न जाए आ भी जा’, ‘बता ऎ आसमां वाले तेरे बन्दे किधर जाएं’ और ‘अब वो करम करे कि सितम, मैं नशे में हूं’ (मैरीन ड्राईव-55),

1958 में साहिर एन.दत्ता को बी.आर.चौपड़ा केम्प मे भी ले आए और पहली ही फिल्म ’साधना’ में धूम मचा दी. ‘औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया’, ‘कहोजी तुम क्या-क्या ख़रीदोगे, यहां तो हर चीज़ बिकती है’, ‘तोरा मनवा क्यों घबराए रे, लाखों दीन-दुखियारे प्राणी जग मे मुक्ति पाएं, हे राम जी के द्वार से’, ‘सम्भल ऎ दिल, तड़पने और तड़पाने से क्या होगा’ और ‘आज क्यों हमसे पर्दा है’.

अगले साल फिर इसी जोड़ी ने हिन्दुस्तानी समाज को एक गूंज से झकझोर डाला. ‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा, इंसान की औलाद है, इंसान बनेगा’. मैं अपने तजुर्बे की बात करता हूं. मेरी उम्र उस वक़्त बमुश्किल 9 साल की होगी जब मैने यह फिल्म अपने पित्ता के साथ देखी थी. इसका पहला असर तो ये हुआ कि मनमोहन कृष्ण नाम का अदाकार जो मुझे अब तक नापसन्द था, अछा लगने लगा. क्योंकि पर्दे पर यह गीत वही गा रहा था. दूसरे यह कि इस दुनिया में अपने 9 साल के तजुर्बे में इस एक जुड़वां शब्द   ‘हिन्दू-मुसलमान’ के जो मायने समझे थे वो हमेशा ‘प्रचारित परिभाषा’ से टकराते थे. इस एक गीत ने उस कच्ची उम्र में मुझे इस उलझावे से निजात दिला दी.

पिछले 50 साल में न जाने कितने ऐसे मौके आए हैं जब दिल ने कहा कि देश के कोने-कोने में जाकर बार-बार इस गीत को बजाऊं. मुझे बहुत यकीन है ऐसे मूर्खतापूर्ण विचार इस सयानी दुनिया में आज़माए जाना बहुत ज़रूरी हैं.

ख़ैर, मेरे पास ज़िन्दगी में कभी न तो इतने साधन रहे और न कभी इतनी बड़ी हैसियत कि ऐसी ‘बुद्धू बातें’ दुनिया में कहीं लागू कर सकूं. आज मौका मिला है तो यह पूरा का पूरा गीत सुना तो ज़रूर दूंगा.

अछा है कि अब तक तेरा कुछ नाम नहीं है

तुझको किसी मज़हब से कोई काम नहीं है

जिस इल्म ने इंसान को तक़्सीम किया है

उस इल्म का तुझ पर कोई इलज़ाम नहीं है

तू बदले हुए वक़्त की पहचान बनेगा

इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

तू हिन्दू बनेगा न…

मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया

हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया

क़ुदरत ने तो बक्शी थी हमें एक ही धरती

हमने कहीं भारत कहीं ईरान बनाया

जो तोड़ दे हर बन्द वो तूफान बनेगा

इंसान की औलाद है…

नफरत जो सिखाए वो धरम तेरा नहीं है

इंसां को जो रौन्दे वो क़दम तेरा नहीं है

क़ुरआन न हो जिसमे वो मन्दर नहीं तेरा

गीत न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है

तू अम्न का और सुलह का अरमान बनेगा

इंसान की औलाद है…

ये दीन के ताजिर(व्यापारी), ये वतन बेचने वाले

इंसान की लाशॉं का कफन बेचने वाले

ये महलों में बैठे हुए क़ातिल ये लुटेरे

कांटॉ के इवज़ रूहे-चमन बेचने वाले

तू इनके लिए मौत का पैग़ाम बनेगा

इंसान की औलाद है इंसान बनेगा

और…

अपने जज़्बात की रौ में बहकर यहां तक आ गया और बहुत सारी बात बाकी है. सो अब क्या ? अब तो बात करने को एक बार और साहिर साहब की बात करनी होगी. सो करेंगे. मतलब अगले हफ्ते ‘आपस की बात’ में होगी फिर से ‘आपस की बात’.

जय-जय.

(दैनिक भास्कर के रविवारीय परिशिष्ट रसरंग में 18 अप्रेल 2010 को प्रकाशित)

तुम्हारे शहर में आए हैं हम, साहिर कहां हो तुम (साहिर-1)
तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा‘ (साहिर-2)
अल्ला तेरो नाम, ईश्वर तेरो नाम‘ (साहिर-3)
मैं ज़िंदा हूं यह मुश्तहर कीजिये…(साहिर-4)

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  1. shaffkat alam says:

    Sir
    Dainik Dhaskar ke havale se bhi arz keya tha .Meri aj bhi yahi soch hai INSAN KI AULAD— geet sabhi schools mein prayers ke saath aniwreya kiya jave.Kam se kam yeh do band to gaye jayan.Iran ke jageh Pakistan likha ja sakat hai . तू हिन्दू बनेगा न…

    मालिक ने हर इंसान को इंसान बनाया

    हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया

    क़ुदरत ने तो बक्शी थी हमें एक ही धरती

    हमने कहीं भारत कहीं ईरान बनाया

    जो तोड़ दे हर बन्द वो तूफान बनेगा

    इंसान की औलाद है…

    नफरत जो सिखाए वो धरम तेरा नहीं है

    इंसां को जो रौन्दे वो क़दम तेरा नहीं है

    क़ुरआन न हो जिसमे वो मन्दर नहीं तेरा

    गीत1 न हो जिसमें वो हरम तेरा नहीं है

    तू अम्न का और सुलह का अरमान बनेगा

    इंसान की औलाद है…
    Magar jansewa ke badle samaj ko devide karo, vote luto aur raaj karo .Angrejon ke ham kale gulam yeh geet kayse gavaenge. Mein janta hoon par sapna dekhne par to pabandi nahi hai.
    shaffkat

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